Friday 7 April 2017

किसकी शह पर बढ़ रहे हैं गौरक्षकों के होंसले ?

     जग मोहन ठाकन
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किसकी शह पर कर रहे हैं गौरक्षक प्रहार ?
२०१७ के अप्रैल माह के पहले ही दिन कुछ अति उत्साही गौरक्षकों द्वारा राजस्थान के अलवर जिले में  कुछ वाहनों में भरकर ले जाये जा रहे गौ वंश को मुक्त कराने के उद्देश्य से  मुस्लिम व्यापारियों पर हमले की घटना उस समय अधिक तूल पकड़ गयी जब चोटिल व्यापारियों में से एक व्यक्ति पहलु खान ने सोमवार तीन अप्रैल को अस्पताल में दम तोड़ दिया . समाचारों के अनुसार पुलिस ने छः ज्ञात व २०० अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ धारा ३०२ के तहत मामला दर्ज कर लिया है . मृतक के परिवार वालों का कहना है कि व्यापारियों ने मेले से नियमानुसार पशुओं की  खरीद की थी . परन्तु प्रशासन राज्य में लागु १९९५ के कानून ( गौओं को हत्या के उद्देश्य से ले जाना  )  के तहत  इसे अपराध मान रही है . प्रदेश या देश में गौरक्षकों द्वारा हमले की यह कोई पहली घटना नहीं है . ऐसी ही कुछ घटनाओं से  विक्षुब्ध होकर देश के प्रधानमंत्री को यह कहना पड़ा था कि अधिकतर गौरक्षक असामाजिक तत्व हैं . प्रधानमंत्री का इतना कहने के बावजूद ऐसी कौन सी ताकत है जिसके बल पर गौरक्षक कानून को अपने हाथ में लेकर ऐसी कारवाई अभी भी जारी रखे हुए हैं . कौन  है जो गौरक्षकों को अभी भी  शह दे रहा है ?
यहाँ प्रश्न यह नहीं है कि गौ वंश को वैध रूप से ले जाया जा रहा था या अवैध रूप से . प्रश्न यह है कि क्या किसी भी व्यक्ति को कानून को एक तरफ रखकर अपने स्तर पर ही सजा देने का अधिकार है ?  क्या गौरक्षकों को यह अधिकार है कि वे अपने ही स्तर पर फैसला ले लें और व्यापारियों पर हमला बोल दें ? गौ रक्षकों को किसने यह अधिकार दिया है  कि वे स्वयं बिना पुलिस व प्रशासन को सूचित किये ही तथा बिना उनका सहयोग लिए ही अपने स्तर पर चेकिंग करें और पिटाई करें ? क्या राज्य सरकार की मशीनरी इतनी पंगु हो गयी है कि गौरक्षकों को अवैध व्यापार की रोक थाम के लिए स्वयं ड्यूटी देनी पड़े . ?
 कानून व्यवस्था के  अप्रभावी  होने के मामले में मुझे मोटे रूप  में तीन परिस्थितियां  नजर आती हैं. प्रथम तो वह स्थिति है जहाँ कानून , प्रशासन  व राजनैतिक सत्ता इतनी लचर हो जाती है कि लोगों को उस पर विश्वास ही नहीं रहता . और वे अपने स्तर पर ही कानून की व्याख्या करते हैं .  दूसरे परिवेश में लोग इतने उदण्ड हो जाते हैं कि उन्हें कानून , प्रशासन व राजनैतिक सत्ता का कोई भय नहीं रहता और वे स्वयं  को इन सबसे ऊपर  मानने लग जाते हैं . तीसरी वह स्थिति हो सकती है जब सत्ता व प्रशासन , जिन पर कानून का राज कायम करने की जिम्मेदारी है , तथा कानून तोड़ने वाले आपस में दूध में पानी की तरह मिल जाते हैं और सब कुछ दूधिया रंग का हो जाता है . जित देखूं तित लाल . खैर हमारे यहाँ कौन सी परिस्थिति है , पाठक ही निश्चित करें तो अच्छा .
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