Wednesday 19 October 2016

द्रौपदी का चीरहरण

जग मोहन ठाकन निर्वस्त्र हो द्रोपदी, करे समुद्र तीरे स्नान, चीर हरण को कुछ नहीं, खुद दुर्याेधन हैरान। परन्तु दुर्याेधन क्यों हैरान है, यह सोचकर स्वयं द्रौपदी भी शर्मिंदगी से चेहरा छुपाये भयभीत और भविष्य में घटित होने जा रहे अनिष्ट के प्रति आशंकित है। द्रौपदी को चिंता है। दुर्याेधन द्वारा चीर हरण के संकट के समय तो श्रीकृष्ण ने उसे बचा लिया था, परन्तु अब जब चीर हरण करने वाला कोई और नहीं बल्कि स्वयं पांडव हैं, तो द्रौपदी किससे आस कर सकती है। 

जग मोहन ठाकन
निर्वस्त्र हो द्रोपदी, करे समुद्र तीरे स्नान,
चीर हरण को कुछ नहीं, खुद दुर्याेधन हैरान।
परन्तु दुर्याेधन क्यों हैरान है, यह सोचकर स्वयं द्रौपदी भी शर्मिंदगी से चेहरा छुपाये भयभीत और भविष्य में घटित होने जा रहे अनिष्ट के प्रति आशंकित है। द्रौपदी को चिंता है। दुर्याेधन द्वारा चीर हरण के संकट के समय तो श्रीकृष्ण ने उसे बचा लिया था, परन्तु अब जब चीर हरण करने वाला कोई  और नहीं बल्कि स्वयं पांडव हैं, तो द्रौपदी किससे आस कर सकती है। वो किसे पुकारे, किसकी तरफ आस लगाये। यों तो बेचारी अकेली द्रौपदी का सदियों से पाँचों पांडव भाइयों द्वारा लगातार चीर हरण होता आ रहा है। इस श्रेष्ठतम संस्कृति के संवाहक देश में, जहाँ नारी को पूजा योग्य माना जाता है, वहां माता कुंती के एक बिना विचारे दिए गए आदेश, पाँचों भाई मिलकर प्रयोग करो की कितने सटीक ढंग से अनुपालना होती आई है। परन्तु अब द्रौपदी इस लिए शर्मिंदा है कि पहले जहां चीर हरण बंद दरवाजों में होता था, आज वो प्रजा के सामने खुले आम हो रहा है। माँ कुंती तो आदेश देकर न जाने कहाँ विदेश चली गई,परन्तु अब पांडव मिलकर उपयोग करने की बजाय अपना अपना एकल एवं पूर्ण स्वामित्व कायम करने को आतुर हैं। मानव की यही कमजोरी है, जो उसे ले बैठती है। बेचारी द्रौपदी विकट समस्या में है कि वो किसके साथ जाये और कैसे? द्रौपदी अन्दर विश्राम भवन में चिंतातुर है। बाहर अर्जुन की आवाज़ आ रही है। मुझे भ्राता श्रीकृष्ण ने हजारों वर्ष पूर्व गीता का उपदेश दिया था। हे अर्जुन सामने देखो, तुम्हारा न कोई भाई है, न पिता है, न बन्धु है,न अपना न पराया। सब जगह मेरा ही अस्त्र कार्य कर रहा है। तुम तो निमित मात्र हो। पर उस समय मैं समझ नहीं पाया था। पर जब से मैं वाराणसी गया हूँ, मुझे सब समझ आ गया है। 
  
खाके पान बनारस वाला, खुल गया बंद अक्ल का ताला
द्रौपदी को स्वयंबर में मैंने जीता था, इस पर पहला और एक मात्र अधिकार मेरा है। अब मेरा लक्ष्य मछली की आँख छेदना नहीं, अपितु द्रौपदी पर सर्वाधिकार सुरक्षित करना है। मैं किसी भी सूरत में पांडव भाइयों से द्रौपदी का सांझापन नहीं रखूँगा। द्रौपदी मेरी है, मेरी रहेगी। 
 
चाहे रब रूठे या दाता, मैंने तेरी बांह पकड़ ली।
गुनगुनाते-गुनगुनाते अर्जुन तीर हाथ में लिये जंगल की तरफ निकल पड़ा है।
तभी बूढा हो चुका, केश विहीन अर्ध चंद्रमाकार शीश पर कहीं कहीं दिख रहे बिखरे हुए चंद श्वेत बालों पर हाथ फेरते हुये, युधिष्टर का प्रवेश होता है। 
 
मुझे तुमसे प्यार कितना, यह हम नहीं जानते, 
 
मगर रह नहीं सकते, तुम्हारे बिना।
पर द्रौपदी बूढ़े, हाथ पैर कांपते, युधिष्टर को चाल से ही पहचान जाती है। मन में द्रौपदी भी नहीं चाहती कि वो बूढ़े खूंसट के खूंटे से बंधे। पर क्या करे, आगे के परिणाम और घटनाक्रम को सोच कर भयभीत है। तभी युधिष्ठिर पुनः बोल उठता है-

काहे को डरती है, क्यों है विकल तूं?
 
चल चल चल तूं, संग मेरे चल तूं।
 
गांधीनगर क्यों? भोपाल चल तूं,
 
बूढ़े इस रसिया को, इतना ना छल तूं।
चल चल चल तूं, संग मेरे चल तूं!
द्रौपदी की तरफ से कोई संकेत न मिलने पर बूढा युधिष्ठिर कोपभवन में जा बैठता है और द्रौपदी की बेवफाई पर बेचैन हो इधर उधर टहल कदमी करने लगता है।
तभी रेत से लथपथ जटाओं, हाथ में गदा थामे, चेहरे पर झुरियों के बाहुल्य वाला महाबली भीम, लम्बे लम्बे सांस लेते हुए द्रौपदी द्वारे आकर दरवाजा खटखटाता है। 
 
हे द्रौपद रानी बोलो,
 
जरा दरवाजा तो खोलो,
 
चला आया हूँ अकेला बाड़मेर से।
पर अन्दर से फिर कोई प्रतिक्रिया नहीं। द्रौपदी के इस दुत्कार व अनादर भरे संकेत से भीम आहत हो वापिस लौटते हुए कहता है-
 
तेरी दुनिया से दूर,
 
चले होके मजबूर, 
 
हमें याद रखना।
लड़खड़ाते संभलते लौट रहे भीम भाई को दूर से देख कर नकुल सहदेव से अनुरोध करता है - भ्राता, भाई भीम का यों मुह मोड़कर जाना सहन नहीं होता। द्रौपदी क्यों इतनी निष्ठुर हो गई है। कहीं हमारे बड़े भाईओं की हठ धर्मिता हमसे परिवार के साथ साथ द्रौपदी भी न छिनवा दे। माँ कुंती पहले ही अपने लिए सुरक्षित जगह ढूंढ़कर विदेश चली गई है। मुझे तो यह सब माँ की ही करतूत दिखती है। हे सहोदर तुम ही कुछ करो। मगर सहोदर सहदेव मात्र इतना कहता है-हे नकुल तुम चिंता मत करो। सब ठीक हो जायेगा।
रूठा है तो मना लेंगे,
देकर खिलौना बहला लेंगे,
फिर भी न माना तो,
फिर भी न माना  तो ----।
अन्दर द्रौपदी कभी द्वार की तरफ देखती है, कभी छत की तरफ। उसे चिंता सता रही है, कहीं एकल स्वामित्व के चक्कर में ये पांडव भाई सामूहिक स्वामित्व भी ना खो बैठें। कहीं पांडवों की आपसी फूट का फायदा उठाकर कौरव उसका अपहरण ही न कर लें। और ये पांडव हाथ मलते ही रह जाएँ। लगता है कि अब तो खुद द्रौपदी को ही कुछ करना पड़ेगा। वह दीवार पर टंगी तलवार की तरफ निहारने लगती है। तभी बाहर प्रजा का शोर सुनाई देता है। होली है, भई होली, रंग रंगीली होली है, अप्रैल की ठिठोली है। आवाज़ धीरे धीरे मंद पड़ती जा रही है। नींद द्रौपदी को अपने आगोश में कसती जा रही है।



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